Thursday, April 23, 2015

दास्तान-ए-इश्क़

यूँ क्यों हुआ के वे मुक़द्दर में चले आए..
फिर छोड़ चले और हम कब्र में चले आए..
कुछ धड़कनें छोड़ आया हूँ डायरी के भीतर..
किसी को कहना उन्हें मेरी डायरी दे आए..
आख़िरी वक़्त तक साथ देने का वादा था उनका..
वादा टूटने ना दिया ,हम खुद ही को मिटा आए..
कितना मुश्क़िल वक़्त था हमारे जुदा होने का..
 ना अश्क मेरे रुके, ना उनके होठ मुस्कुराए..
बहती गंगा सी अंतहीन है इश्क़ की दास्तान..
कोई कितना लिखे कोई कितना सुनाए..

©सार्थक सागर

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