Friday, December 19, 2014

इंसानियत की मौत

क़त्ल हुआ मासूमों का
मरी इंसानियत तड़प तड़प के..
बिखरे आँसू टूटी आस
रोई हर माँ बिलख बिलख के..
खून के क़तरे के संग 
अरमानों के टुकड़े थे..
बह रहा था दर्द हर जगह
मुस्कानों के चीथड़े थे..
स्कूल से छुट्टी हो गई
चले सारे घर की ओर..  
जन्नत का रास्ता था उनका
वे ख़ुदा के अपने बच्चे थे..


सार्थक सागर

Sunday, November 30, 2014

पाक़ दिल

किसी को समझने के लिए गहराइयों में उतरना क्यों पड़े..
काश दिल इतना साफ़ हो बाहर से देखो और सब दिखे..

सार्थक सागर

Wednesday, November 26, 2014

सुकून

बहुत सुकून मिलता था मुझे मोहब्बत में उनकी..
ए काश के उन्हे मुझपे मेरी मैयत के दिन भी प्यार आए..

Monday, November 24, 2014

अकेलापन


क्‍यों आज उस लैम्प पोस्ट के तले
एक घुप्प अंधेरा छाया है ..
क्‍यों आज उस लॉन की कुर्सी पर
कोई बैठने नहीं आया है..
क्‍यों सुने हैं आज वो झूले
जहाँ कल बच्चे झूला करते थे..
क्यों तन्हा है वो घर की छत
जहाँ सब अंत्याक्षरी खेला करते थे..
क्यों वो शाम के हँसी की आवाज़
कानों तक नही पंहुचती है..
क्यों वो सूखे कप और प्यालियां
किसी के लबों को तरसती हैं..
क्यों उन गुलाब और बेली ने
खिलना छोर दिया है..
क्यों आज दोस्तों ने चौराहे पे
मिलना छोर दिया है..
क्यों आज उस फूटपाथ की ईटें
कुछ ढीली पर गई हैं..
क्यों आज दीवारें
कुछ सीली पर गई हैं..

आज तो उस लैम्प पोस्ट की बत्ती
टिमटिमकर बुझ सी गई है..
वो पेड़ जिनपर लगे थे झूले
उनकी डालियां कुछ सुख गई हैं..
वो कुर्सी जो सबका भार सहती
आज खुद एक बोझ बन पड़ी है..
उन कप और प्यालिओं में
अब दरारें. पर गई हैं..
मिलना बंद हुआ सबका ऐसा
जैसे चौराहे पे दीवारें हों..
खिलना छोड़ा फूलों ने ऐसे
जैसे वो रेगिस्तान के किनारे हों..
दीवारों के प्लास्टर
अब झर के गिरने लगे हैं..
सब आज उस छत की अवस्था से
ना जाने क्यों चिढ़ने लगे हैं..
सब चीज़ें वहीं की वहीं हैं
बस बदल गई है उनकी उम्र..
कल कोई आएगा और इन चीज़ों को
हटा कर किसी कोने में डाल देगा..
जहा ये तन्हा पड़ी दम तोड़ देंगी
अभी तक तो दिल मैं मैने
उम्मीद के दिए जला रखे हैं..
पर  ये दिए किसी दिन  बुझ जाएँगे
और साथ ही बुझूंगा मैं..
फिर नहीं आएगी वह सुहानी ज़िंदगी
ना ही लौटेगा वह रौशन सवेरा..
निकलूंगा इस जहाँ से दूर मैं..
रह जाएगी केवल खामोशियाँ तन्हाई
रह जाएगा केवल घुप्प अंधेरा..

सार्थक सागर

लफ्ज़

कुछ लफ्ज़ मेरे कुछ लफ्ज़ तुम्हारे थे..
लफ़्ज़ों-लफ़्ज़ों में हम दिल को हारे थे..
तब लफ्ज़ मिले और लफ़्ज़ों से दिल..
ना लफ्ज़ तेरे ना लफ्ज़ मेरे अब शेर हमारे थे..

सार्थक सागर

आओ यादों की पर्चियाँ चुने

आओ यादों की पर्चियाँ चुने..
कोई अधूरा ख़त जो लिखा तुमने..
आधी एक नज़्म जो लिखी मैंने..
या जला दें या पूरी कर दास्तान बुने..
आओ यादों की पर्चियाँ चुने.


सार्थक सागर

यादों का तूफान


दिल में समेटे यादों का तूफान.. 
उतर गए हम गहरे सागर में.. 
भूल गए थे की उनकी यादें.. 
ले आएँगी तूफान पल भर में .. 
तूफान डुबोने चला जब मेरी कश्ती.. 
चाहत थी के आ के थाम लें वो बाहों में.. 
होश आया तो जाना कहीं और ना थे.. 
हम तो डूब रहे थे उनकी निगाहों में..

सार्थक सागर

वापस आओ


आता नही रोना तो क्यों गम छुपाए रखते हो..
बिना खोए प्यार में दिल कैसे लगाए रहते हो..
रह तो लूँगा किसी के साथ मगर जियूंगा कैसे..
क्यों साथ रहने और जीने का फ़र्क भुलाए देते हो..
बेसलीका बात के अंदाज़ का क्या कहना..
मैं आँखों से कहता और तुम दिल में मुस्काए देते हो..
प्यार में तो मज़ा है बस हारने वाले को..
क्यों मुझे उस खुशी से बहटाए देते हो..
मुझे तो आता है खोना तेरी याद मैं..
एक बार वापिस आओ सुना है....
मरने वाले को भी जिंदगी दिलाए देते हो..

सार्थक सागर