क्यों आज उस लैम्प पोस्ट के तले
एक घुप्प अंधेरा छाया है ..
क्यों आज उस लॉन की कुर्सी पर
कोई बैठने नहीं आया है..
क्यों सुने हैं आज वो झूले
जहाँ कल बच्चे झूला करते थे..
क्यों तन्हा है वो घर की छत
जहाँ सब अंत्याक्षरी खेला करते थे..
क्यों वो शाम के हँसी की आवाज़
कानों तक नही पंहुचती है..
क्यों वो सूखे कप और प्यालियां
किसी के लबों को तरसती हैं..
क्यों उन गुलाब और बेली ने
खिलना छोर दिया है..
क्यों आज दोस्तों ने चौराहे पे
मिलना छोर दिया है..
क्यों आज उस फूटपाथ की ईटें
कुछ ढीली पर गई हैं..
क्यों आज दीवारें
कुछ सीली पर गई हैं..
आज तो उस लैम्प पोस्ट की बत्ती
टिमटिमकर बुझ सी गई है..
वो पेड़ जिनपर लगे थे झूले
उनकी डालियां कुछ सुख गई हैं..
वो कुर्सी जो सबका भार सहती
आज खुद एक बोझ बन पड़ी है..
उन कप और प्यालिओं में
अब दरारें. पर गई हैं..
मिलना बंद हुआ सबका ऐसा
जैसे चौराहे पे दीवारें हों..
खिलना छोड़ा फूलों ने ऐसे
जैसे वो रेगिस्तान के किनारे हों..
दीवारों के प्लास्टर
अब झर के गिरने लगे हैं..
सब आज उस छत की अवस्था से
ना जाने क्यों चिढ़ने लगे हैं..
सब चीज़ें वहीं की वहीं हैं
बस बदल गई है उनकी उम्र..
कल कोई आएगा और इन चीज़ों को
हटा कर किसी कोने में डाल देगा..
जहा ये तन्हा पड़ी दम तोड़ देंगी
अभी तक तो दिल मैं मैने
उम्मीद के दिए जला रखे हैं..
पर ये दिए किसी दिन बुझ जाएँगे
और साथ ही बुझूंगा मैं..
फिर नहीं आएगी वह सुहानी ज़िंदगी
ना ही लौटेगा वह रौशन सवेरा..
निकलूंगा इस जहाँ से दूर मैं..
रह जाएगी केवल खामोशियाँ तन्हाई
रह जाएगा केवल घुप्प अंधेरा..
सार्थक सागर