वापस आ चुका था मैं चेन्नई, तीन महीने की थका देने वाली प्रशिक्षण के बाद, ऐसा
लग रहा था मानो घर लौट आया हूँ | घर ही तो
था, शायद दूसरा घर, इस शहर में मैंने अपने ज़िन्दगी के तीन साल गुज़ारे थे, यहीं
स्कूल के बच्चे से एक परिपक्व इन्सान में तब्दील हुआ | कॉलेज के आस पास के चाय
वाले से लेकर, कॉलेज के गार्ड्स, यहाँ तक की चाय की दुकान के पास रहने वाला कुत्ता
भी कुछ यूँ मिला जैसे महीनों बाद दोस्त से मिला हो | अपने कॉलेज के चौथे वर्ष में
प्रवेश कर चुका था मैं, भाई अलग ठाठ थे अपने “मोस्ट सीनियर”, जो ठहरे |
कॉलेज के अन्दर प्रवेश के साथ ही गले मिलने का सिलसिला शुरू हो गया था, कहाँ मिल
पाया था मुझे स्कूल में इतना प्यार | खैर, शाम हुई और उसके साथ ही शुरू हुआ नए
चेहरों से मिलने का सिलसिला, वही कॉलेज के कैफेटेरिया के बगल वाली सीढ़ियों पे जहाँ
कभी हमने रैगिंग दी थी, नाचे थे, और भी न जाने क्या क्या किया था | बातचीत का
सिलसिला अभी थोडा ठहरा ही था तभी एक और नए चेहरे को मेरे सामने पेश किया गया | आँखों
में चमक, थोड़ी नटखट सी ,इधर उधर उचकती उछलती, मासूमियत चेहरे पे और आँखों में
शैतानी लिए वह मेरे सामने आई, मैंने रॉब दिखाते हुए कहा “सीढ़ी खड़ी रहो और नज़रें
नीची” | कोई डर नहीं था उसके चेहरे पे, बेबाक सी, खूबसूरत होठ और उन पे हल्की मुस्कान | मैंने
फिर आवाज़ ऊँची कर के कहा “मुस्कुराना बंद” हालाँकि मैं चाहता तो नहीं था उसकी
प्यारी मुस्कान रोकना लेकिन फिर भी सीनियर होने का झूठा रॉब तो दिखाना पड़ता है |
मेरे स्कूल से ही थी वह, इतना जानते ही एक अपनापन सा जुड़ गया था |
कुछ यूँ शुरू हुआ था हमारी बातचीत का सिलसिला और ये बातचीत कब मुझे अच्छी लगने
लगी पता ही नहीं चला | कब मैं उसका इंतज़ार करने लगा, प्यार भी नहीं था लेकिन फिर
भी कुछ तो था जो मुझे रोके रखता था उसके लिए वहीं कैफेटेरिया की सीढ़ियों पे | एक
दिन न जाने क्यों काफी डांट लगा दी उसे और उसकी आँखों से दो मोटी मोटी आंसू की
बूँदें बह निकली | जी तो चाहा गले लगा लूँ और आंसू पोछूं लेकिन फिर वही कहीं न
कहीं मेरे सीनियर होने ने मुझे ये करने से रोक लिया | मैंने कहा “जल्दी से आंसू
पोछो हम बाहर जा रहे हैं” | उसने आंसू पोछे और चल दी मेरे साथ उसी दुकान पे जहाँ
हम अक्सर चाय पिया करते थे | मुझे अन्दर अन्दर उसे रुलाना कहीं खाए जा रही थी,
समझाया प्यार से तो बिलकुल ऐसे समझ गई जैसे छोटे बच्चे को चॉकलेट दे दी हो |
उसकी आँखों में कहीं न कहीं मुझे मेरे लिए अलग प्यार दिखने लगा था | हर वक़्त
मेरे चेहरे को निहारते रहना मानो आदत सी हो गई हो उसकी | हर रोज़ बातें करना ,शाम
को अपना खाना मुझे दे देना, मेरे लिए चाय ले के आना और न जाने क्या क्या करती थी वह
पगली | ऐसे ही चलते चलते न जाने कब मेरे जन्मदिन आ गया, शाम हुई और हर दिन जैसा ही
मैं सीढियों पे खड़ा था तभी वह आई, हाथ में केक लिए, कितनी ख़ुशी थी मुझे बयां नहीं
कर सकता | कोई तो था जिसने मेरे जन्मदिन में मेरे लिए केक लाने की सोची | सच कहूँ
तो दिल जीत लिया था उसने इतना प्यार दे के |
इतने दिन साथ रहने के बाद मैं बस उसके दिल की बात जानना चाहता था, और मैं ठहरा
दिल की बात निकलवाने में माहिर, सो निकाल ली | कह दिया उसने “सर, मैं आपसे बहुत
प्यार करती हूँ, मुझे हर वक़्त आपके साथ रहना अच्छा लगता है” | बहुत बेबाक सी, कोई डर
नहीं एक दिन तो उसने इतना कह दिया “ प्लीज सर, मुझे एक बार आपको किस करना है, आपके
जाने से पहले” | मैं कुछ न कह पाया बस सोचता रह गया | क्या प्यार था निश्छल, निःस्वार्थ,
कोई चाहत नहीं पाने की बस एक चाहत की मुझसे प्यार करती रहे और मैं उससे कभी दूर न
जाऊं | अरसे बाद किसी ने इतना प्यार किया था |
शाम हो चली थी, कक्षाएं ख़त्म हो चुकी थी, मैं और वह कॉलेज गेट के बाहर बैठ कर
बातें किये जा रहे थे | सड़क शांत हो गई थी लगभग | बदल यूँ घिर आए मानो हम दोनों को
चादर से ढक रहे हों, और हवाएं माहौल को और खुशनुमा बना रही थी | तभी मैं उठा और
कहा “मेरे करीब आओ”, वह भी हल्के क़दमों से पास आई ,धड़कने तेज़ थी उसकी और हवाएं भी और
तेज़ हो के मानो उसकी धडकनों का साथ दे रही हो | मैंने उसके चेहरे को हल्के हाथों
से पकड़ा और उसके माथे को अपने होठों से लगा लिया | उसने पलकें ऐसे झुका ली थी मानो
किसी गहरे नशे में हो और हाथों से मेरी शर्ट पकड़ रखी थी जैसे उसका छोड़ने का कोई
इरादा न हो |
हवा, खुली सड़क बादल और उनसे लुका छुपी खेलता चाँद हमारी मोहब्बत की शुरुवात के
गवाह थे, उस मोहब्बत के जिसे काफी दूरी तय करनी थी अभी, जिसकी मंजिल तो दूर थी
लेकिन सफ़र का आगाज़ हो चुका था |
©सार्थक सागर