वक़्त पुराने पन्ने पलट रहा था, वह पन्ने जो कहीं दबा आया था मैं | कहीं दूर मुझसे, ऐसी जगह जो मुझे भी याद ना रह सके| पर ये वक़्त भी ना बड़ा आवारा होता है, किसी का नहीं होता, ना तुम्हारा ना मेरा, सो मैं भी वक़्त की आवारगी का मंज़र खामोश देख रहा था. एक एक कर सारे पन्ने तो पलट डाले थे उसने|
वह पहला पन्ना जब मुझे लगा था की मेरा कुछ छूट रहा है जब मैं गर्मी की छुट्टी में घर जाने वाला था| या वह पन्ना जिस पल मुझे लगा की मैं तुमसे प्यार करने लगा था| कितनी मुश्क़िल से कह पाया था मैं तुम्हें| फिर पूरी शाम समंदर किनारे बैठ के सोचता रहा की क्या होगा तुम्हारा जवाब|
एक पन्ना और था मेरे गुमान का जब मुझे लगता था मुझे प्यार नहीं हो सकता, फिर तुम आई और मेरा दिल मुट्ठी में भरे रेत सा फिसलता चला गया| रंग बिरंगे खुशियों के पन्ने, साथ खिलखिला रहे थे अभी भी| मानो हम तुम कहीं पहाड़ों में बैठे हँस रहे हों, एक दूसरे की बाहों में|
कुछ आँसुओं से गीले हुए पन्ने भी थे, हर उस पल का हिसाब रखे जब हमारे आँसू साथ निकल पड़ते थे एक दूसरे के दर्द में| मोहब्बत से भीगे पन्ने थे वे| प्यार की भीनी खुशबू लिए बिल्कुल वैसी जैसे सूखी मिट्टी को बारिश मिल गई हो|
फिर वक़्त ले आया वो काले पन्ने जो मैं नहीं देखना चाहता था, पर वक़्त के आगे किसकी चलती है| कितना डरा रहे थे मुझे वे काले स्याह पन्ने| उस शाम की पूरी दास्तान थी उसमें जब हम तुम जुदा हुए थे| कुछ ग़लतियाँ और कुछ ग़लतफहमिों ने मिल के प्यार को ज़हर दे डाला था| प्यार सो चुका था गहरी नींद में|
आख़िरी पन्ना मेरे आँसुओं से चिपक के बैठ गया मेरे चेहरे पे| कितना हठी था वह| बिल्कुल मुझसा| सच का पन्ना, यथार्थ का व्याख्यान करता हुआ| कह रहा था के मेरे दिल में अभी भी तुम हो, पर तुम्हारे दिल में मैं हूँ या नहीं पता नही|
एक अंतिम बात लिखी थी के मैं और तुम अब हम नहीं थे| यही सच था, वह सच जिसे मैं आज तक नहीं क़ुबूल कर पाया था और शायद कभी कर भी नहीं पाऊँगा|
©सार्थक सागर
वह पहला पन्ना जब मुझे लगा था की मेरा कुछ छूट रहा है जब मैं गर्मी की छुट्टी में घर जाने वाला था| या वह पन्ना जिस पल मुझे लगा की मैं तुमसे प्यार करने लगा था| कितनी मुश्क़िल से कह पाया था मैं तुम्हें| फिर पूरी शाम समंदर किनारे बैठ के सोचता रहा की क्या होगा तुम्हारा जवाब|
एक पन्ना और था मेरे गुमान का जब मुझे लगता था मुझे प्यार नहीं हो सकता, फिर तुम आई और मेरा दिल मुट्ठी में भरे रेत सा फिसलता चला गया| रंग बिरंगे खुशियों के पन्ने, साथ खिलखिला रहे थे अभी भी| मानो हम तुम कहीं पहाड़ों में बैठे हँस रहे हों, एक दूसरे की बाहों में|
कुछ आँसुओं से गीले हुए पन्ने भी थे, हर उस पल का हिसाब रखे जब हमारे आँसू साथ निकल पड़ते थे एक दूसरे के दर्द में| मोहब्बत से भीगे पन्ने थे वे| प्यार की भीनी खुशबू लिए बिल्कुल वैसी जैसे सूखी मिट्टी को बारिश मिल गई हो|
फिर वक़्त ले आया वो काले पन्ने जो मैं नहीं देखना चाहता था, पर वक़्त के आगे किसकी चलती है| कितना डरा रहे थे मुझे वे काले स्याह पन्ने| उस शाम की पूरी दास्तान थी उसमें जब हम तुम जुदा हुए थे| कुछ ग़लतियाँ और कुछ ग़लतफहमिों ने मिल के प्यार को ज़हर दे डाला था| प्यार सो चुका था गहरी नींद में|
आख़िरी पन्ना मेरे आँसुओं से चिपक के बैठ गया मेरे चेहरे पे| कितना हठी था वह| बिल्कुल मुझसा| सच का पन्ना, यथार्थ का व्याख्यान करता हुआ| कह रहा था के मेरे दिल में अभी भी तुम हो, पर तुम्हारे दिल में मैं हूँ या नहीं पता नही|
एक अंतिम बात लिखी थी के मैं और तुम अब हम नहीं थे| यही सच था, वह सच जिसे मैं आज तक नहीं क़ुबूल कर पाया था और शायद कभी कर भी नहीं पाऊँगा|
©सार्थक सागर