कुछ नज़्म दफ़्न हैं
मेरे, तुम्हारे पर्स
के अंदर..
फटे मुड़े किन्हीं काग़ज़
के पन्नों में..
ना जाने आख़िरी
साँस कब ली
थी..
ना जाने कब
आख़िरी बार पढ़े
गए..
शायद दर्द से
चीख़े होंगे दफनाते
वक़्त..
ज़िंदा दफ़्न होने में
दर्द तो होता
है ना..
कुछ यूँ ही
दफ्न हुआ था
मैं भी तेरे
भीतर..
टूटी फूटी बिसरी
बिसराई यादों के पन्नों
में..
आह निकली नहीं क्योंकि
कब्र तेरा दिल
था..
पर ज़िंदा दफ़्न होने
में दर्द तो
होता है ना..
सार्थक सागर